साहित्य एक महकता हुआ उद्यान है... आइए! आनंद लीजिये...सुस्वागतम्!

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Monday 20 January 2014

महाश्वेता देवी:एक सम्भाषण

नमस्कार सुहृद साहित्यप्रेमियों....

साहित्य में वो नव्यता होती है जो जीवन में क्षण-क्षण उत्सव भर देता है,इसलिए मुझे पूर्ण विश्वास है आप सभी एक विशेष उत्साह से पल्लवित होंगे!

परम् आराध्य साहित्यकार गुरुदेव रबिन्द्र नाथ ठाकुर जी के बाद एक और बांग्ला साहित्यकार....जिनका जन्मदिन गत सप्ताह मनाया गया।  आपका जन्म 1926 को ब्रिटिश भारत ढाका में हुआ था। लेखन कौशल आपको विरासत में मिला है। पिता स्व.श्री मनीष घटक जी  एक कवि और उपन्यासकार तथा माँ श्रीमती धारित्री देवी भी एक अच्छी लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता थीं।  कलकत्ता वि.वि. से अंग्रेजी साहित्य में परास्नातक करने के बाद पत्रिकारिता और शिक्षण कार्य से अपने व्यवसायिक जीवन की शुरुआत की। कलकत्ता वि.वि.में व्याख्याता के पद से वे 
1984 में लेखन पर पूर्ण समर्पित होने के लिए सेवानिवृत हो गयीं।

आपके अति उल्लेखनीय साहित्यिक योगदान की चर्चा अगली पोस्ट में की जाएगी,आज प्रकाश डालते हैं उनके जयपुर साहित्यिक सम्मेलन  के गम्भीर और चितनीय उद्घाटन सम्भाषण पर-

           "शब्द! मैं नहीं जानती कि कहाँ से। एक लेखिका जो वेदना में है? शायद, इस अवस्था में पुनः जीने की इच्छा एक शरारतभरी इच्छा है। अपने नब्बेवें वर्ष से बस थोड़ी ही दूर पहुँचकर मुझे मानना पड़ेगा कि यह इच्छा एक सन्तुष्टि देती है, एक गाना है न  ‘आश्चर्य के जाल से तितलियाँ पकड़ना’। इसके अतिरिक्त उस ‘नुकसान’ पर नजर दौड़ाइए जो मैं आशा से अधिक जीकर पहुँचा चुकी हूँ।अट्ठासी या सत्तासी साल की अवस्था में मैं प्रायः छायाओं में लौटते हुए आगे बढ़ती हूँ। कभी-कभी मुझ में इतना साहस भी होता है कि फिर से प्रकाश में चली जाऊँ। जब मैं युवती थी, एक माँ थी, तब मैं प्रायः अपनी वृद्धावस्था में चली जाती थी। अपने बेटे को यह बहाना करते हुए बहलाती थी कि मुझे कुछ सुनाई या दिखाई नहीं दे रहा है। अपने हाथों से वैसे टटोलती थी, जैसा अन्धों के खेल में होता है या याददाश्त का मजाक उड़ाती थी। महत्त्वपूर्ण बातें भूल जाना, वे बातें जो एक ही क्षण पहले घटी थीं। ये खेल मजेदार थे। लेकिन अब ये मजेदार नहीं हैं।

मेरा जीवन आगे बढ़ चुका है और अपने को दुहरा रहा है। मैं स्वयं को दुहरा रही हूँ। जो हो चुका है, उसे आपके लिए फिर से याद कर रही हूँ। जो है, जो हो सकता था, हुआ होगा।अब स्मृति की बारी है कि वह मेरी खिल्ली उड़ाए।मेरी मुलाकात कई लेखकों, मेरी कहानियों के चरित्रों, उन लोगों के प्रेतों से होती है जिन्हें मैंने ‘जिया’ है, प्यार किया है और खोया है। कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं एक ऐसा पुराना घर हूँ जो अपने वासियों की बातचीत का सहभागी है। लेकिन हमेशा यह कोई वरदान जैसा नहीं होता है! लेकिन ‘यदि कोई व्यक्ति अपनी शक्ति के अन्त पर पहुँच जाए तब क्या होगा’? शक्ति का अन्त कोई पूर्णविराम नहीं है। न ही यह वह अन्तिम पड़ाव है जहाँ आप की यात्रा समाप्त होती है। यह केवल धीमा पड़ना है, जीवनशक्ति का ह्रास।

 वह सोच जिस से मैंने प्रारम्भ किया था वह है ‘आप अकेले हैं ’।उस परिवेश से जहाँ से मैं आयी हूँ, मेरा ऐसा बन जाना अप्रत्याशित था। मैं घर में सब से बड़ी थी। मैं नहीं जानती कि आप के भी वही अनुभव हैं कि नहीं, लेकिन उस समय प्रत्येक स्त्री का पहला यौन अनुभव परिवार से ही आता था। और युवावस्था से ही मुझ में प्रबल शारीरिक आकर्षण था, मैं इसे जानती थी, इसे अनुभव करती थी और ऐसा ही मुझे कहा गया था। उस समय हम सभी टैगोर से काफी प्रभावित थे। शांतिनिकेतन में थी, प्रेम में पड़ी, जो कुछ भी किया बड़े उत्साह से किया। तेरह से अठारह वर्ष की अवस्था तक मैं अपने एक दूर के भाई से बहुत प्रेम करती थी। उसके परिवार में आत्मघात की प्रवृत्ति थी, और उसने भी आत्महत्या कर ली। सभी मुझे दोष देने लगे, कहने लगे कि वह मुझे प्यार करता था और मुझे न पा सका इसीलिये उसने आत्मघात कर लिया। यह सही नहीं था। उस समय तक मैं कम्युनिस्ट पार्टी के निकट आ चुकी थी, और सोचती थी कि ऐसी छोटी अवस्था में यह कितना घटिया काम था। मुझे लगता था कि उसने ऐसा क्यों किया। मैं टूट गयी थी। पूरा परिवार मुझे दोष देता था। जब मैं सोलह साल की हुई, तभी से मेरे माता-पिता विशेषकर मेरे सम्बन्धी मुझे कोसते थे कि इस लड़की का क्या किया जाए। यह इतना ज्यादा बाहर घूमती है, अपने शारीरिक आकर्षण को नहीं समझती है।
तब इसे बुरा समझा जाता था।मध्यवर्गीय नैतिकता से मुझे घृणा है। यह कितना बड़ा पाखंड है। सब कुछ दबा रहता है।लेखन मेरा वास्तविक संसार हो गया, वह संसार जिस में मैं जीती थी और संघर्ष करती थी। समग्रतः।मेरी लेखन प्रक्रिया पूरी तरह बिखरी हुई है। लिखने से पहले मैं बहुत सोचती हूँ, विचार करती हूँ, जब तक कि मेरे मस्तिष्‍क में एक स्पष्ट प्रारूप न बन जाए। जो कुछ मेरे लिए जरूरी है वह पहले करती हूँ। लोगों से बात करती हूँ, पता लगाती हूँ। तब मैं इसे फैलाना आरम्भ करती हूँ। इसके बाद मुझे कोई कठिनाई नहीं होती है, कहानी मेरी पकड़ में आ चुकी होती है। जब मैं लिखती हूँ, मेरा सारा पढ़ा हुआ, स्मृति, प्रत्यक्ष अनुभव, संगृहीत जानकारियाँ सभी इसमें आ जाते हैं।जहाँ भी मैं जाती हूँ, मैं चीजों को लिख लेती हूँ। मन जगा रहता है पर मैं भूल भी जाती हूँ।

 मैं वस्तुतः जीवन से बहुत खुश हूँ। मैं किसी के प्रति देनदार नहीं हूँ, मैं समाज के नियमों का पालन नहीं करती, मैं जो चाहती हूँ करती हूँ, जहाँ चाहती हूँ जाती हूँ, जो चाहती हूँ लिखती हूँ।वह हवा जिस में मैं साँस लेती है, शब्दों से भरी हुई है। जैसे कि पर्णनर। पलाश के पत्तों से बना हुआ। इस का सम्बन्ध एक विचित्र प्रथा से है। मान लीजिए कि एक आदमी गाड़ी की दुर्घटना में मर गया है। उसका शरीर घर नहीं लाया जा सका है। तब उसके सम्बन्धी पुआल या किसी दूसरी चीज से आदमी बनाते हैं। मैं जिस जगह की बात कर रही हूँ, वह पलाश से भरी हुई है। इसलिए वे इसके पत्तों का उपयोग करते हैं एक आदमी बनाने के लिए।पाप पुरुष। लोक विश्वास की उपज। शाश्वत जीवन के लिए नियुक्त। वह दूसरे लोगों के पापों पर नजर रखता है। वह कभी प्रकट होता है, कभी नहीं। उसने स्वयं पाप नहीं किया है। वह अन्य सभी के अतिचारों का लेखा-जोखा रखता है। उनके पापों का। अनवरत। और इसीलिए वह धरती पर आता है। छोटी-से-छोटी बातों को लिपिबद्ध करते हुए। एक बकरा। दण्डित। दहकते सूरज के नीचे अपने खूँटे से बँधा हुआ। पानी या छाया तक पहुँचने में असमर्थ। तब पाप पुरुष बोलता है, ‘यह एक पाप है। तुम ने जो किया है वह गलत है। तुइ जा कोरली ता पाप।’वस्तुतः यह एक मनुष्य नहीं है। केवल एक विचार की अभिव्यक्ति है।यह एक दण्ड हो सकता है। उसने कोई भीषण अपराध किया होगा। शे होयतो कोनो पाप कोरेछिलो। कोई अक्षम्य पाप। और अब वह कल्पान्त तक पाप पुरुष बनने के लिए अभिशप्त है। वस्तुतः केवल एक ही पाप पुरुष नहीं है, कई हैं। उसी तरह जैसे कि इस कथा को मानने वाले प्रदेश भी कई हैं।इससे भी सुन्दर कई शब्द हैं। बंगाली शब्द। चोरट अर्थात् तख्ता। और फिर डाक संक्रान्ति। इसका सम्बन्ध चैत्र संक्रान्ति से है। डाक माने डेके डेके जाय। जो आत्माएँ अत्यन्त जागरूक और चैतन्य हैं, वे ही इस पुकार को सुन सकती हैं।

 पुराने साल की पुकार, जो जा रहा है, प्रश्‍न करते हुए। पुराना साल आज समाप्त हो रहा है। और नया साल कल प्रारम्भ हो रहा है। क्या है जो तुम ने नहीं किया है ? क्या है, जो अभी तुम्हें करना है ? उसे अभी पूरा कर दो।गर्भदान। यह बड़ा रोचक है। एक स्त्री गर्भवती है। कोई उसे वचन देता है कि यदि बेटी का जन्म होता है, उसे यह-वह मिलेगा। यदि बेटा होता है तो कुछ और मिलेगा। गर्भ थाकते देन कोरछे। दान हो चुका है जब कि बच्चा अभी गर्भ में ही है। इस कथा का कहना है कि अजात शिशु इस वचन को सुन सकता है, इसे याद कर सकता है, और इसे अपनी स्मृति में सहेज सकता है। बाद में वह शिशु उस व्यक्ति से उस वचन के बारे में उस गर्भदान के बारे में पूछ सकता है जो अभी हुआ नहीं है।हमारा भारत बड़ा विचित्र है। उदाहरण के लिए महाराष्ट्र के परधी समुदाय को लें। एक विमुक्त समुदाय। चूँकि वे आदिवासी समुदाय हैं, बच्चियों की बड़ी माँग है। किसी गर्भवती स्त्री का पति आसानी से अजन्मे बच्चे की नीलामी करा सकता है या बेच सकता है। पेट की भाजी, पेटे जा आछे। जो अभी गर्भ में ही है। नीलाम कोरे दीछे। गर्भ के फल को नीलाम कर देता है।
नरक के कई नाम हैं। नरकेर अनेक गुलो नाम आछे। एक नाम जो मुझे विशेष पसन्द है, वह है ओशि पत्र वन। नरक के कई प्रकार हैं। ओशि का अर्थ तलवार है। और पत्र अर्थात एक पौधा जिस के तलवार सरीखे पत्ते हों। ऐसे पौधों से भरा हुआ जंगल। और आप की आत्मा को इस जंगल से गुजरना होता है। तलवार सरीखे पत्ते उस में बिंध जाते हैं। आखिर आप नरक में अपने पापों के कारण ही तो हैं। इसलिए आप की आत्मा को इस कष्ट को सहना ही है।जब भी मुझे कोई रोचक शब्द मिलता है, मैं उसे लिख लेती हूँ। ये सारी कापियाँ, कोटो कथा। इतने सारे शब्द, इतनी सारी ध्वनियाँ। जब भी उन से मिलती हूँ, मैं उन्हें बटोर लेती हूँ।अन्त में मैं उस विचार के बारे में बताऊँगी जिस पर मैं आराम से समय मिलने पर लिखूँगी। मैं अरसे से इस पर सोचती रही हूँ।

वैश्‍वीकरण को रोकने का एक ही मार्ग है। किसी जगह पर जमीन का एक टुकड़ा है। उसे घास से पूरी तरह ढँक जाने दें। और उस पर केवल एक पेड़ लगाइए, भले ही वह जंगली पेड़ हो। अपने बच्चे की तिपहिया साइकिल वहाँ छोड़ दीजिए। किसी गरीब बच्चे को वहाँ आकर उस से खेलने दीजिए, किसी चिड़िया को उस पेड़ पर रहने दीजिए। छोटी बातें, छोटे सपने। आखिर आप के भी तो अपने छोटे-छोटे सपने हैं।कहीं पर मैं ने ‘दमितों की संस्कृति’ पर लिखने का दावा किया है। यह दावा कितना बड़ा या छोटा, सच्चा या झूठा है ? जितना अधिक मैं सोचती और लिखती हूँ, किसी निष्कर्ष पर पहुँचना उतना ही कठिन होता जाता है।
मैं झिझकती हूँ, हिचकिचाती हूँ। मैं इस विश्‍वास पर अडिग हूँ कि समय के पार जीनेवाली हमारे जैसी किसी प्राचीन संस्कृतिके लिये एक ही स्वीकार्य मौलिक विश्‍वास हो सकता है वह है सहृदयता। सम्मान के साथ मनुष्य की तरह जीने के सभी के अधिकार को स्वीकार करना।लोगों के पास देखनेवाली आँखें नहीं हैं। अपने पूरे जीवन में मैंने छोटे लोगों और उनके छोटे सपनों को ही देखा है। मुझे लगता है कि वे अपने सारे सपनों को तालों में बन्द कर देना चाहते थे, लेकिन किसी तरह कुछ सपने बच गये। कुछ सपने मुक्त हो गये। जैसे गाड़ी को देखती दुर्गा (पाथेर पांचाली उपन्यास में), एक बूढ़ी औरत, जो नींद के लिए तरसती है, एक बूढ़ा आदमी जो किसी तरह अपनी पेंशन पा सका। जंगल से बेदखल किये गये लोग, वे कहाँ जाएँगे। साधारण आदमी और उनके छोटे-छोटे सपने। जैसे कि नक्सली। उन का अपराध यही था कि उन्होंने सपने देखने का साहस किया। उन्हें सपने देखने की भी अनुमति क्यों नहीं है?जैसा कि मैं सालों से बार-बार कहती आ रही हूँ, सपने देखने का अधिकार पहला मौलिक अधिकार होना चाहिए। हाँ, सपने देखने का अधिकार।यही मेरी लड़ाई है, मेरा स्वप्न है। मेरे जीवन और मेरे साहित्य में।"
-महाश्वेता देवी

अगली पोस्ट में आपकी लेखनी पर चर्चा का प्रयास किया जायेगा। तब तक के लिए नमस्कार मित्रों!
शुभम्।

Sunday 12 January 2014

कथा सम्राट :मुंशी प्रेमचन्द

 सादर नमस्कार सुहृद मित्रों...
पुनः हाज़िर हूँ कलम के सिपाही मुंशी प्रेमचन्द जी के साये के साथ। एक ऐसे पुरोधा...जिनके बारे में जितना लिखा जाये,कम ही है, फिर भी अपनी सीमित समझ और पहुंच के अनुसार कुछ साहस करने जा रही हूँ। आशा है आप अपने योगदान से पूर्ण बनायेंगे।

मुंशी प्रेमचन्द के नाम से जाने जाने वाले इस मूर्धन्य साहित्यकार का जन्म वाराणसी के निकट लमही नामक गाँव में सन 1880 में हुआ था। इनका वास्तविक नाम धनपतराय श्रीवास्तव था। 8 वर्ष की अवस्था में ही माता के स्नेह से वंचित होना पड़ा। गरीबी ने बचपन से ही घेर रखा था दैवीय आपदा से भी जूझना पड़ता रहा। इसी के चलते 14वर्ष की अल्पायु में पिता का साया भी उठ गया। 16 वर्ष की अवस्था में विवाह भी हो गया था परन्तु पारिवारिक और आर्थिक क्लेश के चलते वैवाहिक जीवन सफ़ल न हो सका। उन्होंने विधवा विवाह को बढ़ावा देते हुए पुनः एक बाल-विधवा से विवाह रचाया और एक सफल दाम्पत्य जीवन का निर्वहन किया।

आर्थिक कठिनाइयों को पछाड़ते किसी तरह बी.ए. तक की पढ़ाई पूरी कर स्कुल में पढ़ाने लगे। 1921 के करीब उन्हें डिप्टी-इंस्पेक्टर,स्कुल के पद पर नियुक्त किया गया। यही वह समय था जब गाँधी जी सरकारी पद त्यागने का अह्वाहन कर रहे थे। गाँधी जी के नारे का अनुकरण करते हुए प्रेमचन्द ने अपना पद त्याग दिया। जीवन के उतार-चढ़ाव से परे रहकर आप  सदैव हंसमुख स्वभाव के लिए जाने जाते रहे

  आपके साहित्य का उद्येश्य था- सच्चे का बोलबाला झूठे का मुंह काला। वास्तविकता के धरातल पर साहित्य को उतारा। जिसे समाज में न्यून स्थान मिलता उसे प्रेमचन्द जी वृहद स्थान दिया। जीवन की घटनाओं,संघर्षों,दमित आवाजों,सामाजिक समस्याओं  को अपने साहित्य में विशेष स्थान दिया। आदमी की घुटन,कसक,दमन आपके साहित्य से स्पष्ट प्रतिबिम्बित होता है। आपका साहित्य किसी व्यक्ति विशेष को नहीं बल्कि भारत को वर्णित करता है।

उपन्यास लेखन से साहित्यिक जीवन की शुरुआत करते हुए आपकी लेखनी कहानी,नाटक,बाल-साहित्य और अनुवाद सभी पर खूब चली। 300 से अधिक कहानियाँ और अनेकों उपन्यास  लिखने वाले इस महान लेखक को शरतचन्द्र चटर्जी ने उपन्यास का सम्राट कह कर पुकारा। स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान लिखी गयी सोज़ेवतन अंग्रेजों द्वारा जब्त कर ली गयी। इसी उत्पीड़न से आप भयभीत तो बिलकुल नहीं हुए परन्तु शांतिपूर्वक लेखनकर्म करने के लिए अन्य नाम (pseudonym) प्रेमचन्द और उर्दू लेखन नवाब राय के नाम से करने लगे।

1923 में सरस्वती प्रेस की स्थापना की और 1930 के लगभग हंस  पत्रिका का सम्पादन शुरू किया। फिर उन्होंने मर्यादा,जागरण  अदि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया।

आपके लेखन पर सरसरी नजर डालें तो-
उपन्यास-

वरदान,प्रतिज्ञा,सेवासदन,प्रेमाश्रम,निर्मला,कर्मभूमि,रंगभूमि,कायाकल्प,मनोरमा,मंगल सूत्र(अपूर्ण)

कहानी-संग्रह
21 कहानी-संग्रहों में300 कहानियाँ संग्रहित हैं; शोज़ेवतन,सप्त सरोज,प्रेम पचीसी,प्रेम-प्रसून,प्रेम द्वादशी,प्रेम प्रतिज्ञा,पंच फूल,सप्त सुमन,प्रेरणा,समरयात्रा,नवजीवन आदि।

नाटक
संग्राम(1923),कर्बला,(1924),प्रेम की बेदी(1933)


जीवनी
दुर्गादास,कलम-तलवार और त्याग,जीवन-सार(आत्मकहानी)

बाल-साहित्य
मनमोदक,जंगल की कहानी,रामचर्चा

अनुवाद
जॉर्ज इलियट, टालस्टॉय,गाल्स वर्दी  आदि की कहानियों का अनुवाद किये।

मुंशी प्रेमचन्द के साहित्य से फ़िल्मी जगत ने भी बहुत लाभ उठाये। सत्यजीत रे ने दो कहानियों पर फ़िल्में बनायीं; शतरंज के खिलाड़ी(1977) सदगति(1981)
के सुब्रमण्यम ने सेवासदन पर फिल्म बनाई और एक तेलगु फिल्म मृणाल सेन द्वारा बनाई गयी जिसे रा.पु. मिला। निर्मला पर आधारित धारावाहिक भी बहुत लोकप्रिय हुआ।
   इस तरह यह साहित्य के महान नायक आज भी हमारे मध्य हैं परन्तु इनका शरीर 1936 में जलोदर रोग से पीड़ित होकर पंचतत्व में विलीन हो गया था।

हम आपको शत-शत नमन करते है!
इसी के साथ अब नमस्कार!
फिर मिलेगे किसी पुरोधा के साथ...
सहयोग बनाये रखें।
जय हिन्द!
सादर




Monday 6 January 2014

विलियम बटलर यीट्स:आयरिश नोबेल साहित्यकार

सादर वन्दे आदरणीय सुधी वृन्द!

सुहृद मित्रों, आज मैं भारतीय नहीं एक आयरिश साहित्यकार का संछिप्त परिचय प्रस्तुत करने जा रही हूँ। आप सोच सकते हैं स्वदेशी साहित्यकारों को पहले  प्रस्तुत करना प्रासंगिक होता, लेकिन एक विदेशी साहित्यकार को प्राथमिकता देने के दो कारण हैं-

*यह एक ऐसे साहित्यकार हैं, जिन्हें भारतीय वदेव रबिन्द्र नाथ टैगोर को नोबेल पुरस्कार दिलाने में खासा योगदान रहा (जिसका  सन्दर्भ पिछली पोस्ट में दिया गया था)।

*स्वयं भी साहित्य के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ट पुरस्कार नोबेल पुरस्कार के विजेता रहे।

*साहित्य तो सदैव सार्वभौम होता है।

विलियम बटलर यीट्स-
   1865 को J.B.Yeats के घर जन्मे W.B.Yeats को कला मानों विरासत में मिली थी, आपके पिता एक पेंटर थे। पढाई के समय तक आपके माता-पिता लन्दन के निवासी हो गये थे लेकिन यीट्स ने छुट्टियों के दौरान या अन्य अवसरों पर अधिकांश अपने दादा-दादी के पास आयरलैंड में रहना पसंद करते थे। वहां के विभिन्न पहलुओं ने उनके जीवन को बहुत प्रभावित किया जिसका परिचय आपकी कविताओं में स्पष्ट दीखता है।

यीट्स के अध्ययनकाल में ही उनके पिता के माध्यम से कई महत्वपूर्ण साहित्यकारों से परिचय हुआ। उन्हीं में से एक Edward Dowden  इन्हें साहित्यिक जीवन की शुरुआत कराते हुए महत्वपूर्ण कविता The Wondering of Oisin का प्रकाशन कराया, इसी के साथ आप की लेखनी दौड़ चली और सफलता कदम चूमने लगी। लन्दन के कई महान साहित्यकारों के साथ एक साहित्यिक क्लब की स्थापना की और अपने पहले नाटक The Countless Cathleen का प्रकाशन 1892 में किया।

आयरिश राजनीति और भारतीय धर्मशास्त्रों/उपनिषदों में विशेष श्रृद्धा थी। आयरिश महिला मॉड गोने से इतना प्रभावित हुए की उनके समर्पण में प्रेम और श्रृंगारिक कविताओं का अम्बार लगा दिया उनमे से प्रमुख हैं-

ए मेमरी ऑफ़ यूथ
फ़ालेन मेजेस्टी
फ्रेंड्स
ब्रोकन ड्रीम्स
प्रेज़ेंस आदि

प्रथम विश्व युद्ध और 50 की उम्र पार करते-करते आपकी रचनाएँ इह जगत से पार जाने लगी थीं। हृदय पटल पर अमिट छाप छोड़ने वाली अभिव्यक्ति थी। शायद ही कोई पहलू छोड़ा हो जिसे आपने सहित्य न समर्पित किया हो। जड़ को भी आवाज दी और कब्र में सोये लोगों को भी।

प्रतीकात्मकता (symbolism)  आपके लेखन का विशिष्ट पहलू था। आइये कुछ चर्चा करें यीट्स द्वारा प्रयुक्त प्रतिको की;
symbolism के लिए आप विश्व में चिर परिचित हैं, फूल...चिड़िया...पानी...टापू...चन्द्रमा....इमारतें...आदि के माध्यम से स्वयं को अनोखे ढंग से प्रस्तुत करते थे। कहते थे- एक प्रतीक सौ व्यक्तियों को सौ तरह से आनन्दित ककर सकता है।

आपने गुलाब (rose) को बड़ा स्थान दिया है लेखन में; The Rode of Peace  नामक कविता में गुलाब को भौतिक प्रेम का प्रतीक माना है तो Rose of World में इसे शाश्वत प्रेम और सौन्दर्य का प्रतीक माना है। एक अन्य कविता में गुलाब को ही सृजनात्मक कल्पना की शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया है।
cross(×) से यीट्स ने शरीर और आत्मा, सोने-जागने तथा जन्म-मृत्यु को प्रदर्शित किया है।
इसके अतिरिक्त इमारतों, हंस और ऐतिहासिक वस्तुओं को महत्व के साथ प्रयोग किया है।

सदा आत्मा के साथ रमण करने में विश्वास करते थे (unity with being) 

आपके साहित्य ने शशैशवावस्था  से वृद्धावस्था तक, व्यष्टि से प्रकृति तक, भौतिक से दैवीय तक यात्रा की।
आपकी प्रमुख कृतियाँ हैं-
The Rose
Dialogue Between soul and Body
The Tower
Relationship
Full Moon In March
Second Coming आदि

आपके विश्व साहित्य में अविस्मरनीय योगदान के लिए 1923 में विश्व का सर्वोच्च पुरस्कार प्रदान किया गया।

उनकी दो कवितायेँ यहाँ प्रस्तुत हैं-

HIS DREAM

  SWAYED upon the gaudy stern
The butt-end of a steering-oar,
And saw wherever I could turn
A crown upon the shore.

And though I would have hushed the crowd,
There was no mother's son but said,
'What is the figure in a shroud
Upon a gaudy bed?'

And after running at the brim
Cried out upon that thing beneath
--It had such dignity of limb--
By the sweet name of Death.

Though I'd my finger on my lip,
What could I but take up the song?
And running crowd and gaudy ship
Cried out the whole night long,

Crying amid the glittering sea,
Naming it with ecstatic breath,
Because it had such dignity,
By the sweet name of Death.

NO SECOND TROY

 HY should I blame her that she filled my days
With misery, or that she would of late
Have taught to ignorant men most violent ways,
Or hurled the little streets upon the great,
Had they but courage equal to desire?
What could have made her peaceful with a mind
That nobleness made simple as a fire,
With beauty like a tightened bow, a kind
That is not natural in an age like this,
Being high and solitary and most stern?
Why, what could she have done, being what she is?

Was there another Troy for her to burn?

हम इस महान कलाप्रेमी, कवि, नाटककार को अपनी अगाध श्रृद्धा समर्पित करते हैं।

इसी के साथ नमस्कार दोस्तों...
फिर मिलेंगे किसी साहित्यकार के साथ।
जय हो!
सादर