सादर नमस्कार सुहृद मित्रों...
पुनः हाज़िर हूँ कलम के सिपाही मुंशी प्रेमचन्द जी के साये के साथ। एक ऐसे पुरोधा...जिनके बारे में जितना लिखा जाये,कम ही है, फिर भी अपनी सीमित समझ और पहुंच के अनुसार कुछ साहस करने जा रही हूँ। आशा है आप अपने योगदान से पूर्ण बनायेंगे।
मुंशी प्रेमचन्द के नाम से जाने जाने वाले इस मूर्धन्य साहित्यकार का जन्म वाराणसी के निकट लमही नामक गाँव में सन 1880 में हुआ था। इनका वास्तविक नाम धनपतराय श्रीवास्तव था। 8 वर्ष की अवस्था में ही माता के स्नेह से वंचित होना पड़ा। गरीबी ने बचपन से ही घेर रखा था दैवीय आपदा से भी जूझना पड़ता रहा। इसी के चलते 14वर्ष की अल्पायु में पिता का साया भी उठ गया। 16 वर्ष की अवस्था में विवाह भी हो गया था परन्तु पारिवारिक और आर्थिक क्लेश के चलते वैवाहिक जीवन सफ़ल न हो सका। उन्होंने विधवा विवाह को बढ़ावा देते हुए पुनः एक बाल-विधवा से विवाह रचाया और एक सफल दाम्पत्य जीवन का निर्वहन किया।
आर्थिक कठिनाइयों को पछाड़ते किसी तरह बी.ए. तक की पढ़ाई पूरी कर स्कुल में पढ़ाने लगे। 1921 के करीब उन्हें डिप्टी-इंस्पेक्टर,स्कुल के पद पर नियुक्त किया गया। यही वह समय था जब गाँधी जी सरकारी पद त्यागने का अह्वाहन कर रहे थे। गाँधी जी के नारे का अनुकरण करते हुए प्रेमचन्द ने अपना पद त्याग दिया। जीवन के उतार-चढ़ाव से परे रहकर आप सदैव हंसमुख स्वभाव के लिए जाने जाते रहे
आपके साहित्य का उद्येश्य था- सच्चे का बोलबाला झूठे का मुंह काला। वास्तविकता के धरातल पर साहित्य को उतारा। जिसे समाज में न्यून स्थान मिलता उसे प्रेमचन्द जी वृहद स्थान दिया। जीवन की घटनाओं,संघर्षों,दमित आवाजों,सामाजिक समस्याओं को अपने साहित्य में विशेष स्थान दिया। आदमी की घुटन,कसक,दमन आपके साहित्य से स्पष्ट प्रतिबिम्बित होता है। आपका साहित्य किसी व्यक्ति विशेष को नहीं बल्कि भारत को वर्णित करता है।
उपन्यास लेखन से साहित्यिक जीवन की शुरुआत करते हुए आपकी लेखनी कहानी,नाटक,बाल-साहित्य और अनुवाद सभी पर खूब चली। 300 से अधिक कहानियाँ और अनेकों उपन्यास लिखने वाले इस महान लेखक को शरतचन्द्र चटर्जी ने उपन्यास का सम्राट कह कर पुकारा। स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान लिखी गयी सोज़ेवतन अंग्रेजों द्वारा जब्त कर ली गयी। इसी उत्पीड़न से आप भयभीत तो बिलकुल नहीं हुए परन्तु शांतिपूर्वक लेखनकर्म करने के लिए अन्य नाम (pseudonym) प्रेमचन्द और उर्दू लेखन नवाब राय के नाम से करने लगे।
1923 में सरस्वती प्रेस की स्थापना की और 1930 के लगभग हंस पत्रिका का सम्पादन शुरू किया। फिर उन्होंने मर्यादा,जागरण अदि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया।
आपके लेखन पर सरसरी नजर डालें तो-
पुनः हाज़िर हूँ कलम के सिपाही मुंशी प्रेमचन्द जी के साये के साथ। एक ऐसे पुरोधा...जिनके बारे में जितना लिखा जाये,कम ही है, फिर भी अपनी सीमित समझ और पहुंच के अनुसार कुछ साहस करने जा रही हूँ। आशा है आप अपने योगदान से पूर्ण बनायेंगे।
मुंशी प्रेमचन्द के नाम से जाने जाने वाले इस मूर्धन्य साहित्यकार का जन्म वाराणसी के निकट लमही नामक गाँव में सन 1880 में हुआ था। इनका वास्तविक नाम धनपतराय श्रीवास्तव था। 8 वर्ष की अवस्था में ही माता के स्नेह से वंचित होना पड़ा। गरीबी ने बचपन से ही घेर रखा था दैवीय आपदा से भी जूझना पड़ता रहा। इसी के चलते 14वर्ष की अल्पायु में पिता का साया भी उठ गया। 16 वर्ष की अवस्था में विवाह भी हो गया था परन्तु पारिवारिक और आर्थिक क्लेश के चलते वैवाहिक जीवन सफ़ल न हो सका। उन्होंने विधवा विवाह को बढ़ावा देते हुए पुनः एक बाल-विधवा से विवाह रचाया और एक सफल दाम्पत्य जीवन का निर्वहन किया।
आर्थिक कठिनाइयों को पछाड़ते किसी तरह बी.ए. तक की पढ़ाई पूरी कर स्कुल में पढ़ाने लगे। 1921 के करीब उन्हें डिप्टी-इंस्पेक्टर,स्कुल के पद पर नियुक्त किया गया। यही वह समय था जब गाँधी जी सरकारी पद त्यागने का अह्वाहन कर रहे थे। गाँधी जी के नारे का अनुकरण करते हुए प्रेमचन्द ने अपना पद त्याग दिया। जीवन के उतार-चढ़ाव से परे रहकर आप सदैव हंसमुख स्वभाव के लिए जाने जाते रहे
आपके साहित्य का उद्येश्य था- सच्चे का बोलबाला झूठे का मुंह काला। वास्तविकता के धरातल पर साहित्य को उतारा। जिसे समाज में न्यून स्थान मिलता उसे प्रेमचन्द जी वृहद स्थान दिया। जीवन की घटनाओं,संघर्षों,दमित आवाजों,सामाजिक समस्याओं को अपने साहित्य में विशेष स्थान दिया। आदमी की घुटन,कसक,दमन आपके साहित्य से स्पष्ट प्रतिबिम्बित होता है। आपका साहित्य किसी व्यक्ति विशेष को नहीं बल्कि भारत को वर्णित करता है।
उपन्यास लेखन से साहित्यिक जीवन की शुरुआत करते हुए आपकी लेखनी कहानी,नाटक,बाल-साहित्य और अनुवाद सभी पर खूब चली। 300 से अधिक कहानियाँ और अनेकों उपन्यास लिखने वाले इस महान लेखक को शरतचन्द्र चटर्जी ने उपन्यास का सम्राट कह कर पुकारा। स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान लिखी गयी सोज़ेवतन अंग्रेजों द्वारा जब्त कर ली गयी। इसी उत्पीड़न से आप भयभीत तो बिलकुल नहीं हुए परन्तु शांतिपूर्वक लेखनकर्म करने के लिए अन्य नाम (pseudonym) प्रेमचन्द और उर्दू लेखन नवाब राय के नाम से करने लगे।
1923 में सरस्वती प्रेस की स्थापना की और 1930 के लगभग हंस पत्रिका का सम्पादन शुरू किया। फिर उन्होंने मर्यादा,जागरण अदि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया।
आपके लेखन पर सरसरी नजर डालें तो-
उपन्यास-
वरदान,प्रतिज्ञा,सेवासदन,प्रेमाश्रम,निर्मला,कर्मभूमि,रंगभूमि,कायाकल्प,मनोरमा,मंगल सूत्र(अपूर्ण)
कहानी-संग्रह
21 कहानी-संग्रहों में300 कहानियाँ संग्रहित हैं; शोज़ेवतन,सप्त सरोज,प्रेम पचीसी,प्रेम-प्रसून,प्रेम द्वादशी,प्रेम प्रतिज्ञा,पंच फूल,सप्त सुमन,प्रेरणा,समरयात्रा,नवजीवन आदि।
नाटक
संग्राम(1923),कर्बला,(1924),प्रेम की बेदी(1933)
जीवनी
दुर्गादास,कलम-तलवार और त्याग,जीवन-सार(आत्मकहानी)
बाल-साहित्य
मनमोदक,जंगल की कहानी,रामचर्चा
अनुवाद
जॉर्ज इलियट, टालस्टॉय,गाल्स वर्दी आदि की कहानियों का अनुवाद किये।
मुंशी प्रेमचन्द के साहित्य से फ़िल्मी जगत ने भी बहुत लाभ उठाये। सत्यजीत रे ने दो कहानियों पर फ़िल्में बनायीं; शतरंज के खिलाड़ी(1977) सदगति(1981)।
के सुब्रमण्यम ने सेवासदन पर फिल्म बनाई और एक तेलगु फिल्म मृणाल सेन द्वारा बनाई गयी जिसे रा.पु. मिला। निर्मला पर आधारित धारावाहिक भी बहुत लोकप्रिय हुआ।
इस तरह यह साहित्य के महान नायक आज भी हमारे मध्य हैं परन्तु इनका शरीर 1936 में जलोदर रोग से पीड़ित होकर पंचतत्व में विलीन हो गया था।
हम आपको शत-शत नमन करते है!
इसी के साथ अब नमस्कार!
फिर मिलेगे किसी पुरोधा के साथ...
सहयोग बनाये रखें।
जय हिन्द!
सादर
साहित्य के पुरोधा उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेम चंद को सादर नमन | उनकी कालजयी रचनाओं ने समाज को दिशा प्रदान की है | सामज उनका ऋणी रहेगा |
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