सादर वन्दे परम् आदरणीय साहित्य प्रेमियों!
साहित्य नीड़...साहित्य का गेह! आज की पोस्ट इस गेह की आधारशिला है सुहृद मित्रों।
यदि साहित्य में भारतीय साहित्य की बात करें,तो गुरुदेव:रबीन्द्र नाथ का नाम सर्वप्रथम जहन में आता है। विश्व के परिपेक्ष्य में भी आपका डूबा सा नहीं बल्कि एक चमकते सितारे की तरह है। तो क्यों न शुरुआत करें इन महान साहित्यकार,दार्शनिक,चित्रकार,समाजसेवक से...
कहते हैं न दोस्तों-होनहार बिरवान के होत चीकने पात कृतार्थ थी आपके सन्दर्भ में।
श्री देवेन्द्र नाथ ठाकुर और श्रीमती शारदा देवी बाल्यावस्था से ही पुत्र में अद्भुत प्रतिभा के अंकुर फूटते देख फुले नहीं समाते थे। यौवन की देहलीज़ पर कदम रखे तो आपकी प्रतिभा को देख मुंबई डक्टर अनंतराम के पास पढ़ने हेतु भेज दिया। फिर 1878 में बड़े भैया श्री सतेन्द्र जी के साथ इंलैंड चले गये। लन्दन प्रवास में आपने 'भाग्य हृदय' नामक कविता की रचना की।
यहीं से आपके वास्तविक जीवन की शुरुआत हुई। 22वर्ष की अवस्था में श्री बेनी माधव चौधरी की पुत्री भवतारिणी से पाणिग्रहण हुआ। विवाहोपरांत अपनी धर्मपत्नी का नाम मृणालिनी रख दिया। आरंभ में 'भारती' नाम की पत्रिका के लिए लेख लिखे फिर यात्रा जरी रखते हुए 'बालक' नामक पत्रिका के लिए बालगीत,नाटक कविताएँ,कहानियाँअदि लिखना शुरू किया। साहित्य विद्या के धनी रबिन्द्र जी पर माँ सरस्वती और माँ लक्ष्मी की कृपा सदैव बनी रही।
आपने ग्रहस्थ धर्म का पालन करते हुए पैतृक सम्पत्ति का दायित्व बखूबी सम्भाला और समय-समय पर निर्धनों की सहायता करने को तत्पर रहे। आपने पुत्रों को सुशिक्षित व् सुसंस्कारित कर मिलकर 'शांति निकेतन की नीव डाली। 1902 में श्रीमती मृणालिनी किसी बीमारीवश पंचतत्व में विलीन हो गयीं।
कलात्मक रुझान-
आपके साहित्य रुझान,जिसके बल आपने विश्व फलक पर भारत का नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा ,पर चर्चा करने से पहले आपके चित्रकला की दिलचस्पी पर बात क्र ली जाये। साठ के दशक के उत्तरार्ध में टैगोर की चित्रकला की यात्रा प्रारम्भ हुई। यह उनके साहित्यिक सजगता का विस्तार था। यद्यपि उन्होंने कला की कोईओपचारिक शिक्षा नहीं ली थी,एक सशक्त एवं सहज दृश्य कोष का विकास कर लिया था। उनकी आधुनिक पाश्चात्य,पुरातन एवं बाल्य कला जैसे दृश्य कला विभिन्न स्वरूपों की गहरी समझ इसका कारण थी।
साहित्यिक जीवन-
साहित्य की शायद ही कोई विधा हो जिसमे आपकी रचनाएँ न हों। कविता,नाटक,गाथा,उपन्यास,कहानी,निबन्ध,गीत सबकुछ आपकी लेखनी ने तराशा। आप मुख्य रूप से बांग्लासाहित्यकार थे लेकिन धीरे-धीरे आपकी लेखनी सार्वभौम होती गयी और विश्व को नतमस्तक करती गयी। आप शायद संसार के एकमात्र लेखक हैं जिनकी दो रचनाएँ दो देशों की राष्ट्रगान बनी...जन गण मन-भारत
आमार सोनार बांग्ला-बांग्लादेश।
आपने बांग्ला साहित्य में नये गद्य और छंद तथा लोकभाषा के उपयोग की पहल की और पारंपरिक प्रारूपों से मुक्त किया। बहुत कम उम्र में आपने लेखन की शुरुआत कर दी थी,1870 के दशक में अधूरा अध्ययन छोड़ कर भारत वापस आ गये थे और 1880 के दशकमें अनेक कविता संग्रहों का प्रकाशन किया।
वे वश्विक एकता और समानता के पक्षधर थे। ब्रम्हसमाजी होने के बावजूद भी आपका दर्शन 'व्यष्टि' मात्र को समर्पित रहा। भले आप क
अ साहित्य प्रधानतः बांग्ला हो परन्तु रचनाओं का केन्द्रीय तत्व मानवीय सम्वेदनाओं को परिष्कृत करती थीं। वे समष्टि के स्पन्दन के कवि थे,एक ऐसे नाटककार जिनकी लेखनी दुखांत तक ही सीमित नहीं बल्कि उसके आगे जिजीविषा का दर्शन कराती है। एक ऐसा कथाकार जो मानवीय पीड़ा की आवृति ही नही मानव मात्र के अंतिम गन्तव्य की तलाश की कसक जगाता है। आपके व्यक्तित्वके हर विन्दु पर चर्चा करना बड़ा ही मुश्किल है परन्तु कुछ महत्वपूर्ण कृतियों पर बिन्दुवार प्रस्तुति करने का सद्प्रयास करें तो-
मानसी (1890)-यह काव्यसंग्रह ठाकुर जी की प्रतिभा और परिपक्वता का परिचायक है। इसमें उनकीश्रेष्ठ कविताएँ शामिल हैं जो अपरिचत पद्य शैली में बंगला भाषा में लिखी हुई हैं। इनके साथ ही कुछ समसामयिक व्यंग भी शामिल हैं।
*प्रमुख कहानियाँ- बांग्लादेश में पद्मा नदी के किनारे रहने वाले निर्धन एवं पिछड़े ग्रामीणों के प्रति सम्वेदना ठाकुरजी के साहित्य की मुख्य सुर बनी।ग्ल्पगुच्छकी तीन ज़िल्दों उनकी सभी 84 कहानियाँ संग्रहीत हैं,जिनमे से कुछ सर्वश्रेष्ठ चुनना बहुत मुश्किल है क्योंकि आपकी सभी कहानियाँ सर्वश्रेष्ठ ही हैं। 1891-1895 उनकी साधना का महान कल था। वे कहानियों को सबुज पत्र(हरे पत्ते) पर छापते थे,जो आज भी दृष्टिगत होते हैं। कहानी के साधारण पात्र अंत तक महापुरुष में परिवर्तित होते दीखते हैं।मूक पीड़ा,करुणा, सम्वेदना पाठक हृदय को अभिभूत करती है। काबुलीवाला,पोस्टमास्टर,अतिथि,आधी रात,पड़ोसन आदि अविस्मर्णीय कहानियाँ हैं। जो लोकप्रिय होने के साथ सर्वश्रेष्ठ भी हैं।
गुरुदेव के लेखन में चित्रांगदा,साधना,मुक्तधारा, चित्रा,सोनार तरी अदि का नाम जन मानस के हृदय पटल पर अंकित हैं।
*पुरस्कृत गीतांजली और विदेशी प्रतिक्रिया- ठाकुरजी की कविताओं की पाण्डुलिपि को सबसे पहले ब्रिटिश साहित्यकार विलियम रोथेस्ताइन ने पढ़ा और इतना प्रभावित हुए कि महान कवि w.b.yeats को पढ़ाया ही नहीं पश्चिमी जगत के लेखकों,कवियों,चित्रकारों और चिंतकों से टैगोर का परिचय कराया ।उन्होंने ही इसे 'इण्डिया सोसाइटी' से प्रकाशन की व्यवस्था की बहुत अच्छा प्रभाव नही पड़ा,लेकिन जब 1913 में इसे 'मैक मिलनएंड कम्पनी,लन्दन' ने इसे प्रकाशित और 13नवम्बर1913 को नोबेल पुरस्कार की घोषणा हुई,तब तक इसके अनेकों संस्करण छप चुके थे।
यीट्स ने अंग्रेजी अनुवादों में सुधार किये और अंतिम स्वीकृति के लिए टैगोर के पास भेजे और उन्होंने लिखा-"हम इन कविताओं में निहित अजनबीपन से उतना प्रभावित नहीं हुए जितना यह देखकर कि इनमें तो हमारी ही छवि नजर अ रही है।"
मुझे बार-बार इन कविताओं को इस डर से पढ़ना बंद करना पड़ा है की कहीं कोई मुझे रोते-सिसकते हुए न देख ले।हम लोग लंबी- लंबी किताबें लिखते हैं,जिनमे शायद एक भी पन्ना ऐसा आनन्द नहीं देता।"
फिर गीतांजली का जर्मन,फ्रेंच,जापानी,रुसी आदि विश्व की प्रमुख भाषाओं में अनुवाद हुआ।
उन्हें सम्मान भी असीम मिला और आलोचना भी मिली। ब्रिटेन के समाचार-पत्र 'द डेली टेलीग्राफ' ने तो उन्हें नोबेल पुरस्कार मिलने की सुचना तक प्रसारित करना उचित नहीं समझा।'द टाइम्स' के अनुसार तो स्वीडिश अकादमी के अप्रत्या शित निर्णय पर सभी समाचार पत्रों ने आश्चर्य व्यक्त किया था। वहीं 'डी क्रिसेंट मून' ने लिखा था की इस बंगाली का अंग्रेजी भाषा पर जैसा अधिकार है वैसा बहुत कम अंग्रेजों को होता है।
आपके बारे में क्या लिखा जाये और क्या छोड़ा जाये समझ पाना बहुत मुश्किल है। इस महान व्यक्तित्व,जिसने संसार को भारत के सामने नतमस्तक कर दिया,7अगस्त2941 को पंचतत्व में विलीन हो गया।
हमें गर्व है अपनी भारत भूमि पर जिसने ऐसे पुरोधाओं को अवतरित किया,टैगोर का शब्द-शब्द अनुकरणीय है।
सादर प्रणाम मित्रों
फिर मिलेंगे एक साहित्यिक पुरोधा के साथ
नव वर्ष सुखद और मंगलमय हो।
जय हिन्द!
गुरुदेव टैगोर को बार बार पढना और जानना सदैव अद्भुत एहसास देता है. शुभकामनाएँ!
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीया।
Deleteसहयोग बनाए रखें...
सादर
बहुत ही सुन्दर! उपयोगी जानकारी साझा की है आपने!
ReplyDeleteसादर आभार आदरणीय!
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